कोलकाता के दुर्गा पूजा पंडाल: कला, सामाजिक एकता और यूनेस्को की प्रशंसा

कोलकाता के दुर्गा पूजा पंडाल: कला, सामाजिक एकता और यूनेस्को की प्रशंसा

जब कोलकाता दुर्गा पूजा का मौसम आता है, तो शहर की सड़कों पर रंग‑बिरंगे पंडालों की चमक नज़र को थाम लेती है। मानो हर कोने पर एक नई कहानी बुन रही हो, जहाँ देवियों की आराधना और कलाकारों की रचनात्मकता एक साथ मिलती है। UNESCO ने 2021 में इसे मानवता की अस्थायी सांस्कृतिक विरासत के रूप में मान्यता दी, और यह कोई आश्चर्य नहीं कि आज कोलकाता इस उत्सव को दुनिया के सबसे बड़े सार्वजनिक कला महोत्सव के रूप में प्रस्तुत करता है।

पंडाल की उत्पत्ति और इतिहास

पहली दर्ज़ी दुर्गा पूजा बंगाल में 1583 में हुई, जबकि कोलकाता में सावरना रॉय चौधरी परिवार ने 1610 से इस उत्सव को आयोजित किया। निजी घरों से शुरू हुई यह परम्परा 1757 में शॉभाबाजर रजबारी के नाबाकृष्णा देव द्वारा सार्वजनिक रूप में पेश की गई, और 1910 में बारोवारी आंदोलन की शुरुआत के साथ पूरी नगरी में फैल गई। समय के साथ पंडाल बड़ी-बड़ी बनते गए, बांस, लकड़ी और स्थानीय सामग्री से तैयार होकर हजारों श्रद्धालुओं को एकत्रित करने लगे।

जगह‑जगह के पंडालों में देवी दुर्गा को उसके चार बच्चों—सरस्वती, लक्ष्मी, कर्तिकेय और गणेश—के साथ स्थापित किया जाता है। अंदरूनी सजावट में पेंटिंग, मूर्तिकला और जटिल लाइटिंग का प्रयोग किया जाता है, जिससे एक दिव्य माहौल तैयार हो जाता है।

आधुनिक पंडाल: कला, थीम और समुदाय

आज के पंडाल केवल पूजा स्थल नहीं, बल्कि एक बड़े कैनवास की तरह होते हैं जहाँ हर साल नया थीम प्रस्तुत किया जाता है। कलाकारों का समूह, जो अक्सर कुर्मतुली के कुम्हारों से जुड़ता है, कई महीनों पहले ही मिट्टी और गंगा के किनारे की धुलाई से तैयार किए गए मृत्तिकाएँ बनाते हैं। महालया की रात जब आँखों का पेस्ट दिया जाता है, तब माता का स्वरूप जीवंत हो जाता है।

  • **थीमैटिक पंडाल** – पौराणिक कथाएँ, सामाजिक मुद्दे और विश्व प्रसिद्ध स्मारकों की प्रतिलिपि बनाना।
  • **प्रौद्योगिकी का समावेश** – LED लाइटिंग, प्रोजेक्शन और ध्वनि प्रभावों से पंडाल को जीवंत बनाना।
  • **समुदाय की भागीदारी** – स्थानीय क्लब, स्वयंसेवक और दान संगठनों का सहयोग, जो फंडरेज़िंग से लेकर निर्माण तक सब कुछ संभालते हैं।
  • **भोग की परम्परा** – खिचड़ी, शाकाहारी व्यंजन और मिठाइयाँ पूरे पंडाल में वितरित की जाती हैं, जिससे लोगों के बीच एकता बढ़ती है।

पंडाल हॉपिंग करते समय सामाजिक वर्ग, धर्म या जाति का कोई फर्क नहीं पड़ता; सभी लोग एक साथ इन कलात्मक अभिव्यक्ति को देखना और पूजा में भाग लेना पसंद करते हैं। इस प्रक्रिया में अभाव और अभिमान की दीवारें ध्वस्त होती हैं, और शहर में एक सामूहिक गर्व की भावना उत्पन्न होती है।

सरकार भी इस साल के उत्सव को प्रोत्साहित करती है, जैसे 2013 में पश्चिम बंगाल ने बिस्वा बंगला शरद स्मरण पुरस्कार शुरू किया, और 1985 से एशियन पेंट्स शरद सम्मान दिया जाता है। इन पुरस्कारों ने पंडाल निर्माताओं को नई ऊँचाइयों तक पहुँचाने में मदद की है।

दुर्गा पूजा के दस दिन, महालया से लेकर अंतिम विसर्जन तक, एक गोलाकार कथा बनाते हैं। जब पंडाल में बनी मिट्टी की मूर्ति को गंगा में विसर्जित किया जाता है, तो वह न सिर्फ पूजा का अंत, बल्कि नयी रचना की शुरुआत भी दर्शाता है। इस निरंतर चक्र के कारण कोलकाता का दुर्गा पूजा पंडाल सिर्फ धार्मिक इवेंट नहीं, बल्कि मानव रचनात्मकता, सामाजिक जुड़ाव और सांस्कृतिक निरंतरता का जीवंत प्रमाण बन जाता है।

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